Thursday, October 31, 2013

परवाना

खिलते कमल-सा चेहरा, आँखों में समंदर सा गहरा,
कोई सोच भी नहीं सकता, क्यूँ लगा है तुझ पर पहरा...

ताज़गी हो गुलाब की तुम,
महकाती हो गुलशन,
भंवरा हूँ मैं बागवाँ में,
भटकता हूँ मैं दर-बदर...

शम्मां है तूं रात की,
क्यूँ ढलती है तूं हर पहर,
परवाना हूँ मैं इस शाम का,
जलता हूँ क्यूँ मैं इस क़दर

#09082007

Chetan Jaura


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