Monday, September 16, 2013

बिख्ररने की शिकायत कैसी...........

अब जो बिखरे तो, बिख्ररने की शिकायत कैसी,
खुश्क़ पत्तों की हवाओं से रफ़ाक़त कैसी,

मैने हर दौर में बस उस से मोहब्बत की है,
जुर्म संगीन है, अब इस में रियायत कैसी,

एक पत्ता भी गर शाख से जुदा होता है,
क्या कहूं दिल में गुजरती है क़यामत कैसी,

जिन्दगी तुझको तो लम्हों का सफ़र कहते हैं,
राह में आ गई सदियों की मुसाफ़त कैसी,

हवा के दोश् पे रखे हुए चिराग हैं हम,
जो बुझ भी जाएं तो हवाओं से शिकायत कैसी................


रफ़ाक़त=नफरत | मुसाफत=रुकावट, अड्चन | दोश्=रहनुमाऔं, रहमतों


-Chetan Jaura

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