Friday, September 27, 2013

सोच - Think of Mind

मैं
सोचता हूं
कैसे बयां करुं तुम्हे,
कैसे मैं बताऊं......
उस जन्नत की
इक परी
सूरज की
इक किरण हो तुम.....
किसी की जिंदगी,
किसी की
आरजु,
फ़रियाद हो तुम.....
उन हसीं लम्हों की
इक याद,
दिल का
इक एहसास हो तुम.....
जुबां पर अटका
इक जवाब,
आंखों में रुका
आफ़ताब हो तुम......
बात जुबां की जो आती
तो क़लम है क्यूं
रुक जाती......
और मैं
फिर से खो जाता हूं
उन यादों में,
उन ख्वाबों में...
और
इस दिल में
ढूंढता हूं,
और
पूछ्ता हूं खुद से
"कौन हो तुम?"
फिर
अकसर तन्हाई में
डूबकर,
यादों में तेरी
खो सा जाता हूं......
अकेला
मुस्क़राता हूं
फिर मुझे याद आता है
कि दिल में
बस गई हो तुम,
नजर में
रच गई हो तुम,
जुबां पर
जच गई हो तुम......
मैं
फिर से सोचता हूं
और
सोचता ही रहता हूं.......
अधुरी थी,
अधुरी हो,
अधुरी रह ही जाती हो...
क्यूं तुम पूरी नहीं होती?

क्यूं तुम नारी नहीं होती?

क्यूं अब तक ख्वाब रहती हो?

अधुरा ख्वाब रहती हो..................
मैं अकसर सोचता हूं,
और
सोचता ही रहता हूं
कि कैसे बयां करूं तुमको.............



#21/220220122327

From: "Zannat"

Chetan Jaura


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